नेताजी की विरासत
कहते हैं भारत त्योहारों का देश है लेकिन जब बात होती है स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय त्योहारों की तब रौनक कुछ औऱ ही होती है।अमूमन हर त्योहारों पर अपने अपने इष्टों को याद करनी वाले देशवासी स्मरण करते है आज़ादी के ख़ातिर सँघर्ष करने वाले नायकों की ,सभी की अलग अलग त्याग की कहानी होती है सबका अपना अपना सँघर्ष का स्तर लेकिन उस फेहरिस्त से एक नाम जो ज़्यादातर अपेक्षित रहता है या यूं कहें कि उनके त्याग बलिदान और योगदान से ज्यादातर लोग ही अनिभिज्ञ रहते है आज हम उनकी बात करेंगे।
यह कहानी बहुत रोमांचक है और बहुत अनोखी है।इस कहानी में अध्यात्म भी है, इस कहानी में एक कुशल प्रशासक भी है,इस कहानी में पिता का एक आज्ञाकारी पुत्र भी है और इस कहानी में देश के खातिर अपना सब कुछ कुर्बान करने वाला एक देशभक्त भी है।
देश की आज़ादी के ख़ातिर अपना सब कुछ दाव पर रखने वाले हमारे नायक का जन्म उड़ीसा (कटक) के एक सम्पन्न बंगाली परिवार में उस समय हुआ था जब देश पराधीनता के जंजीरो में जकड़ा हुआ था। 15 साल के उम्र ही उन्होंने विवेकानंद के आदर्शों का पूरा अध्यन कर लिया था । प्राम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने प्रेसिडेंसी कालेज में दर्शन शास्त्र स्नातक में दाखिला लिया ,वहाँ ब्रिटिश प्रोफेसर के भारतीय छात्रों पर रंगभेदी टिप्पणी के खिलाफ खड़े होने पर उन्हे स्नातक के द्वितीय वर्ष में ही निलंबित कर दिया गया ऐसे तमाम अन्याय और अत्याचार की खबरे उन्हें बहुत व्यथित करती थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1918 में दर्शन में स्नातक की उपाधि लेने के बाद अपने पिता के सपने को पूरा करने के लिए कैम्ब्रिज विश्विद्यालय इंग्लैंड ICS की परीक्षा की तैयारी करने चले गए ।उन दिनों किसी भारतीय के लिए यह परीक्षा लगभग असाध्य ही मानी जाती थी,उन्होनो इस परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया और तत्काल ही त्याग की इबारत पेश करते हुए त्यागपत्र देकर वापस अपने वतन आ गए।
विवेकानंद और अरविंदो घोष की विचारधारा से प्रभवित उस युवा को अभी बहुत लंबा सफर तय करना था।स्वराज पत्रिका का प्रकाशन और देशबंधु चितरंजन दास के सानिध्य में रहकर वह देश की आज़ादी के दिशा में काम करने लगे,उन्हें जल्द ही बंगाल युवा कांग्रेस का अध्यक्ष चुन लिया गया ।अपने जीवन काल मे कुल 11 जेल यात्रा करने वाले जननायक की पहली जेलयात्रा 1925 में हुई। उन्हें मांडले भेज दिया गया जहाँ उन्हें तपेदिक और अन्य स्वास्थ्य विसंगतियों से गुजरना पड़ा।1927 में छूटने के बाद जवाहर लाल नेहरू के साथ कांग्रेस के तहत अपना योगदान देने लगे ,1930 में असहयोग आंदोलन में उन्हें दूसरी दफा जेल जाना पड़ा
1938 तक वह कांग्रेस के मान्यता प्राप्त नेता बन चुके थे और उन्हें इस अधिवेशन का अध्य्क्ष चुना गया ।गाँधीजी और उनके तरीको में अंतर था ,विचारधारा की इस लड़ाई का जोर आजमाइश का केंद्र बना अध्य्क्ष पद उन्होंने गाँधी समर्थन प्राप्त सीता रमईया को हरा कर फिर 1939 में अध्य्क्ष पद बरकरार रखा लेकिन अपने अनुसार काम न कर पाने के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
उन्होंने आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लाक का गठन किया और लग गए आजादी के लड़ाई में ।उन्हें फिर गिरप्तार किया गया लेकिन भूख हड़ताल के कारण जल्द ही रिहा करने के बाद भी उन्हें नज़रबन्द करके रखा जाने लगा।
सुभाष बाबू भेष बदलने और दुश्मन के आँखों को चखमा देंने में बड़े माहिर थे उन्होंने एक पठान का भेश धारण किया और पेशावर, अफगनिस्तान रास्ते वो जा पहुँचे सोवियत संघ । कभी इंश्योरेंस एजेंट जियाउद्दीन तो कभी इटालियन ऑरलैंडो मोजोता जैसे रूप धारण कर अपनी जन्मभूमि की परतंत्रता का निदान करने के इस सफ़र में उनका अगला पड़ाव बना जर्मनी।
बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतन्त्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे
प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लड़े लगभग 4500 युद्धबंदियों को मिलाकर उनको संगठित किया। आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। हिटलर जैसे तानाशाह के सामने लोग बोलने से डरते थे वहाँ नेताजी ने उसे सोवियत के खिलाफ दूसरा मोर्चा खोलने पर चेताया ,कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माफी माँगी और माईन काम्फ के अगले संस्करण में वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
भारत में आज भी कुछ तथाकथित लोग नेताजी को फासीवादी ताकतों के साथ साठगाँठ करने और उनसे मदद लेने का आरोप लगाते है ,उन्हें इसका इल्म नही की नेताजी जैसा कूटनीति बहुत ही प्रभावशाली थी।वह दुश्मन के दुश्मन को अपना दोस्त कहते थे ।
सुभाष को पता लगा कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलने वाला है। इसलिये 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कीलबन्दरगाह में वे अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्वी एशिया की ओर निकल गये। वह जर्मन पनडुब्बी उन्हें हिन्द महासागर में मैडागास्कर के किनारे तक लेकर गयी। वहाँ वे दोनों समुद्र में तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँचे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय किन्हीं भी दो देशों की नौसेनाओं की पनडुब्बियों के द्वारा नागरिकों की यह एकमात्र अदला-बदली हुई थी। यह जापानी पनडुब्बी उन्हें इंडोनेशिया के पादांग बन्दरगाह तक पहुँचाकर आयी।
जहाँ एक तरफ जापान ने सिंगापुर ,मलाया, बर्मा ब्रिटिश उपनिवेश पर अपना आधिपत्य कायम कर लिया था,वही दूसरी तरफ रासबिहारी बोश के नेतृत्व में भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का गठन पहले ही हो चुका था,यह उनके लिए एक मुफ़ीद स्थान और मुफ़ीद समय था। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा।
21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए लगभग 45000 भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था।
सिंगापुर के सेंट्रल हाल में उन्होनो दिल्ली चलो का नारा देकर फौज मे एक नए जोश का संचार किया
नेताजी एक कुशल प्रशासक थे ,वे प्रतीकों का बहुत ध्यान देते थे लेकिन वह केवल प्रतीकात्मक होने से भी बचते थे।आज़ाद हिंद फौज में नेहरू ब्रिगेड,गाँधी ब्रिगेड ,रानी लक्ष्मीबाई ब्रिगेड जैसे गठन उनके प्रतीकों के प्रति जागरूकता को दिखाते थे।उन्होंने इस माध्यम से इन लोगो को भी अप्रत्यक्ष रूप से अपनी लड़ाई का हिस्सा बना लिया था। जापान के लोग पितर्वादी सोच के थे ,महिलाओं की सेना में भर्ती उन्हें नागवार गुजरी ,लेकिन नेताजी इस सशस्त्र संग्राम में सभी का प्रतिनिधित्व चाहते थे। जापानी सेना ने रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट को अभ्यास के लिए स्थान देने से मना कर दिया था ,नेताजी ने उनके लिए संघर्ष कर स्वत्रंत्रता की लड़ाई में अपना वैचारिक योगदान भी बखूबी दिया। आज़ाद हिंद फौज में सभी कौमो के लिए एक ही खाने का स्थान था ,जहाँ सभी साथ खाते थे,धर्म निरपेक्षता भी उनके वैचारिक योगदानों में एक रहा और अनेकता में एकता का एक खूबसूरत प्रतीक ।
प्रतीकों के प्रति उनकी बानगी यही तक नही रुकती ,कौमी तराना और जय हिंद एक नए स्तम्भ स्थापित करने में सक्षम थे।जहाँ कौमी तराना ने एकता के मार्ग को प्रशस्त किया वही जय हिंद भारत का राष्ट्रीय नारा और अभिवादन का एक ज़रिया बन गया। इत्तफाक, एतमाद और क़ुर्बानी INA का ध्येय वाक्य बनाया गया।
'कदम कदम बढ़ाएं जा ' जैसे गीत के धुन आज भी सेना के परेडों में बजाए जाते है।
जब लाल किले में नवम्बर 1945 से जनवरी 1946 तक कोर्ट मार्शल की कार्यवाही चली तो पूरे देश मे एक नारा चल पड़ा हिंदुस्तानियों की एक आवाज़ ,शहगल,ढिल्लोंन ,शाहनवाज।इस मुकदमे ने स्वत्रंता आंदोलन को एकता के सूत्र में पिरो दिया तीनो सेनानी अलग अलग सम्प्रदाय के थे।आज़ाद हिंद फौज अपने विघटन के बाद भी स्वतंत्रता के लड़ाई में नित नए आयाम स्थापित करती जा रही थी। ब्रिटिश साम्राज्य का भारत मे शाशन का दारोमदार केवल ब्रिटिश इंडियन आर्मी पर था ,नेताजी की लड़ाई ने भारतीयों सौनिकों की अंग्रेजों के प्रति वफ़ादारी को घटाने में अहम भूमिका निभाई। बॉम्बे नौसैनिक विद्रोह मुकदमे के दौरान ही हो गया था,भारतीय सौनिकों ने कई जगहों पर ब्रिटिश अफसर के हुक्म मानने से इनकार कर दिया था।
जापान ने अंडमान निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को शासन स्थापित करने के लिए दी जिसको नेताजी ने हिन्द और स्वराज के नए नाम से सुसज्जित किया। अब बारी थी आज़ाद हिंद फौज को अपना शौर्य दिखाने की,पूर्व एशिया में नेताजी ने नारा दिया 'तुम मुझे ख़ून दो,मैं तुम्हे आजादी दूँगा'। म्यांमार के रास्ते फौज ने ब्रिटिश भारत के उत्तरी पूर्व भाग पर सुनियोजित हमला बोला ।21 -22 मई 1944 के दौरान चले इस युद्ध में आज़ाद हिंद फौज को अभूतपूर्व सफलता मिली।
मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 30 km दूर एक जगह है मोइरँग ,जहाँ आज़ाद हिंद फौज को अभूतपूर्व सफलता मिली ।वह जगह इतिहास में भी उपेक्षित रह गया औऱ विकाश में भी,बहुत कम लोग यह जानते होंगे यहाँ 14 अप्रैल 1944 में पहली बार भारत मे तिरँगा शान से लहरा।1500 वर्ग मील का यह क्षेत्र तीन महीने तक आज़ाद हिंद सरकार के अंतर्गत रहा। भारत के राजधानी को छोड़कर किसी भी शहर में आजादी के सच्चे संघर्षक नेताजी का कोई स्मारक तक नही था।नेताजी कभी मोइरँग नही आये लेकिन पत्रों के माध्यम से यहाँ के लोगो को संदेश भेजा ,लोगो ने उनके संदेश मात्र को ही निर्देश समझा और शायद यही कारण रहा कि आजादी के वर्षों बाद तक उपेक्षित रहने के बावजूद उन्होंने इस विरासत को सँजोए रखा।अभी हाल ही के कुछ वर्षों में वहाँ एक संग्रहालय का निर्माण किया गया।
यहाँ यह बताना बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि गाँधीजी और नेताजी के विचारों में जरूर अंतर रहा होगा लेकिन उनका ध्येय एक था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में गाँधीजी ने" करो या मरो " का नारा देकर नेताजी के विचारधारा के बेहद करीब आ गए थे।स्वत्रंता प्राप्ति में हिंसा और अहिंसा की विचारधारा से बढ़कर मतभेद आंदोलन छेड़ने के समय को लेकर रहा,जहाँ नेताजी द्वितीय विश्वयुद्ध के आरंभ में ही जन आंदोलन चाहते थे वही बापू इसे उपयुक्त समय नही मानते थे। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ही गाँधीजी के पक्ष में उन्होंने रेडियो से जनता को संबोधित किया और उन्हें राष्टपिता कह संबोधित किया।।नेताजी और बापू का आत्मीयता का रिश्ता था लेकिन जब उपलब्धियों की बात आती है तो लोग इन्हें प्रतिस्पर्धी बना देते है।
मैं बेशक यह मानता हूँ कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को महज अहिंसक कहना उन 26000 सैनिकों का अपमान होगा जिन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज का हिस्सा बन अपने जीवन का बलिदान दिया।
यह प्रश्न बहुत ही प्रासंगिक हो जाता है कि नेताजी का योगदान इतना उपेक्षित क्यो रह गया? क्यो उनकी मृत्यु एक अनसुलझी रहस्य बन के रह गयी? क्यो उनका जीवन संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक उचित स्थान नही बना पाया? गाँधी और नेहरू से मतभेदों को उनके उपलब्धियों के ऊपर तवज्जो क्यो दी गयी?
नेताजी सुभाषचंद्र बोश केवल एक योद्धा नही थे ।वह एक कुशल प्रशासक ,उच्च कोटि के कुटनितीयज्ञ,धर्म निरिपेक्ष,आध्यात्मिकता से परिपूर्ण सच्चे राष्ट्रभक्त थे ।उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में वैचारिक, व्यवहारिक,योगदान भी बखूबी दिया।
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