UNIFORM CIVIL CODE
भारतीय सविंधान देश के सबसे बड़े और अंतिम मान्य क़ानून के तौर पर जब शक्ल अख्तियार कर रहा था तब सविंधान निर्माताओं के बीच एक अहम सवेंदनशील मसला था,विविध प्रकार के पंथ ,मज़हब में विश्वास करने वाले लोगों को उनके हिस्से की आज़ादी देने के साथ साथ यह सुनिश्चित करना कि कानून के समक्ष सभी जन एक होंगे।
समान नागरिक संहिता की बात उस समय यह कह के टाल दिया गया था कि देश के नागरिक और सामाजिक ढाँचा इसके लिए अभी पूरी तरह तैयार नही लेकिन अनुच्छेद 44 में नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत भविष्य में यूनिफॉर्म सिविल कोड को देश में सभी समुदायों के साथ मुक़म्मल वार्ता कर उनको विश्वास में लेकर लागू करने के निर्देश दिए गए थे।
सविंधान के भाग 4 डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पालिसी की कुँजी आर्टिकल 37 है जिसके तीन प्रमुख आयाम है।पहला की यह गैर न्यायीक है,मतलब कोर्ट में इसके तहत कुछ भी मांग नही की जा सकती।दूसरा की देश चलाते वक्त यह सरकार के ध्यान में होना चाहिए।तीसरा की जब भी संसद कोई कानून बनाए तब सभी निर्देशित तत्व संज्ञान में रखने होंगे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 बरस बाद तक भी सरकारों ने कोई भी कदम इस और नही बढ़ाया, कारण चाहे जो भी रहे हो ।मसलन तुष्टिकरण की राजनीति ,राजनैतिक इक्षाशक्ति का अभाव या फ़िर सवैंधानिक साहस की कमी । यह मसला शुरू से ही भाजपा के मुद्दों में रहा, 2014 में राजग सरकार बनने के बाद इस दिशा में बहस ने तब और तेजी पकड़ा जब 2017 में इस बाबत लॉ कमीशन से कॉन्सलेटशन रिपोर्ट मांगी गई ।
आख़िर जरूरत क्या है यूनिफार्म सिविल कोड की?नसरीन को निकाह निभाना होता है ,जो कि उसके ऊपर एक कांट्रेक्ट है वही शैलजा का विवाह है जो जीवन का एक सँस्कार है,सात जन्मों का साथ है। दोनों देश के नागरिक है लेकिन उनके अधिकार में कितनी असमानता ।नसरीन का अधिकार शरीयत तय करेगा वही शैलजा का विवाह अधिकार हिन्दू कोड 1955 जो अब सविंधान का हिस्सा है वो तय करेगा ,दोनों महिला है लेकिन दोनों को अधिकार में कितना अंतर !
सुप्रीम कोर्ट सविंधान का प्रहरी है,समय समय पर वह उसकी व्याख्या भी करते रहता है। कोर्ट के अधिकार इस मद में बहुत सीमित है लेकिन कई दफ़ा UCC पर कानून बनाने की वकालत सुप्रीम कोर्ट कर चुका है।
शाहबानों का केस मानवता के मूल को भी चुनौती देने वाला था,1985 में मोहम्मद खान विरुद्ध शाहबानों बेगम केस सुप्रीम कोर्ट के सामने आया जिसमें 65 वर्षीय महिला शाहबानों जो 5 बच्चों की माँ थी को उसके शौहर मोहम्मद खान ने तलाक दे दिया और मेहर के नाम पर महज दो सौ रुपये महीने,कोर्ट ने दंड सहिंता की धारा 125 के हिसाब से फैसला शाहबानों के पक्ष में दिया लेकिन कट्टरवादी मुस्लिम पुरुष समाज को यह मंजूर नही था और सत्ता में थी तुष्टिकरण की जनक कांग्रेस सरकार,विधायिका के बल पर कानून लाकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया गया।
दूसरी बड़ी नज़ीर बना सरला मुदुगल केस जिसमे विवाह के मामलों पर मौजूद व्यक्तिगत कानूनों के बीच संघर्ष और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 के आह्वान पर चर्चा की गई है। यह एक ऐतिहासिक निर्णय माना जाता है जिसने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
एक समान नागरिक कानून की व्यवस्था का पुरजोर विरोध एक खास तबके के अल्पसंख्यक द्वारा किया जाता रहा है।मुस्लिम समुदाय के कट्टर पुरुष तत्व अंग्रेजों के ज़माने में 1937 से लागू शरियत को अपना सिविल लॉ मानते है,यह उनके लिए एक पर्सनल लॉ है जिसके सरंक्षण के लिए AIMPLB जैसी संस्था का भी अस्तित्व है।दुनियां में मुस्लिम केवल भारत में ही नही है आज के दौर में 22 देशों ने शरीयत में उलजुलूल नियमो को दरकिनार कर मानवता के स्तम्भ स्थापित किये है।इराक़, जोर्डन, मोरक्को ,यूएई जैसे इस्लामिक देशों ने भी एक नागरिक कानून को तरजीह दी है तो फिर भारत मे क्यो नही????
भारत के कानून में जब सभी जुर्मों के आरोपी एक हो सकते है, जब दंड सहिंता एक हो सकती है फिर आर्टिकल 44 की वह अवधारणा क्यो नही जिसमें कहा गया कि सभी सिविल लॉ बराबर है ।एक तरफ़ संसद 1955 में केवल हिंदू, सिख ,बौद्ध ,जैन,के लिए विशेष कानून बनाती है फ़िर इसाई और इस्लाम पंथ के लिए क्यो नही??पंथ निरपेक्ष का ढाँचा कहाँ गुम हो जाता है ।अल्पसंख्यक को यह कह बरगलाया जाता है कि उनके ऊपर बहुसंख्यक समुदाय के तौर तरीकों को थोपा जाएगा,जो कतई सही नही है ,हिन्दू समुदाय सदा से ही पंथ निरपेक्ष रहा है , उसने सभी पंथों को स्थान दिया।
भारत विविधताओं का देश है ,हर पंथ के अपने नियम अपने सिद्धान्त मसलन हिन्दू में विवाह सात जन्मों का साथ,ईसाई में एक सैकर्मेंट जहाँ गॉड साक्षी होते है वही इस्लाम मे निकाह एक कॉन्ट्रेक्ट। भारत की विविधता को अलगाव यानी डिस्क्रिमिनेशन का आधार तो नही बना सकते ,सभी नागरिक के मानिन्द एक कानून हो इसमें नाक चढ़ाने जैसी क्या बात है??सविंधान में केवल अनुच्छेद 25 से लेकर अनुच्छेद 28 तक ही उपबन्ध नही जो रिलिजियस फ्रीडम देते है बल्कि अनुच्छेद 14,15 और 21 भी है जो समानता का अधिकार और ससम्मान जीवन जीने का अधिकार भी देते है अगर इनमें से कोई भी अधिकार का उल्लंघन होता है तो आर्टिकल 44 इन सब पर तरजीह पा सकती है।
एक अफवाह फैलाई जाती है कि UCC रीति रिवाजों या परम्पराओं को बदल देगी लेकिन कानून व्यवस्था का कोई भी अंग इंसान इंसान के बीच के रिश्ते और संबंध पर ज्यादा अपेक्षित होता है एक नागरिक का दूसरे नागरिक से संबंध ,इंसान का उसकी आस्था उसके आराध्य या फिर पूजा पद्धति पर विश्वास अलग- अलग हो सकता है लेकिन एक तरह के इंसानी व्यवहार समाज मे एकता को परिभाषित करते है। UCC का मुख़ालफ़त करने वाले लोग सविंधान के आर्टिकल 25 को अपना हथियार बनाते हुए ये कहते है कि उन्हें रिलिजियस फ्रीडम का अधिकार है,वह आर्टिकल 29 का भी हवाला देते है जो अल्पसंख्यक को उनके रिलिजियस मान्यताओं को मानने की आजादी और स्वतंत्रता देती है लेकिन वह कही न कही नैतिकता के आयाम को दरकिनार कर देते है। क्या पर्सनल लॉ विसुद्ध रूप से रिलिजियस ला की श्रेणी में है ,यह एक तर्क का विषय हो सकता है लेकिन UCC के जरिए इंसानी जिंदगी को नियंत्रित करने वाले पक्ष जैसे शादी,डाइवोर्स,अडॉप्टेशन, और इन्हेरीटेंस जैसे मुद्दों पर एक कानून जरूर होनी चाहिए।
महिलाओं के साथ असमानता इन्ही पर्सनल कानून में सबसे ज़्यादा गहराई से छुपी हुई है ,शरीयत के हिसाब से 14 साल की मुस्लिम युवती का निकाह वैध है लेकिन अन्य पंथ के 14 वर्षीय लड़की का विवाह अवैध है और दण्ड सहिंता के आधार पर अपराध। मुस्लिम एक से ज़्यादा निकाह कर सकता है ,अपनी सहूलियत से तलाक भी दे सकता था ।इस आधार पर हम कह सकते है कि पर्सनल लॉ मुख्तलिफ तौर से महिला विरोधी है ।
UCC को लेकर सविंधान के उपबंधों में कुछ अड़चने जरूर है जैसे अनुच्छेद 13 रिलिजियस कस्टम को कानून कहता है वही अनुच्छेद 44 का अनुच्छेद 25 और 29 के साथ प्रतिस्पर्धा भी जग ज़ाहिर है ।यह भी गौर करने वाली बात होगी कि असलियत में रिलिजन बहुत से मुद्दों पर व्यापक असर डालती है,चाहे वह अनुवांशिकी का नियम हो या फ़िर मैरिज का विषय।भारत जैसे देश में जहाँ हर नियम- क़ानून के जद में केवल हिंदू होता है वही सिविल राइट जैसे अहम मुद्दों पर समझौता कर कब तक यह तंत्र तुष्टिकरण की राजनीति करती रहेगी।कब इस मुद्दे का पटाक्षेप होगा??
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