आरक्षण:समीक्षा,समाधान, विधि-विधान और सरकार

भारतीय समाज में कर्म को जन्म से ऊपर तरज़ीह दिए जाने का एक विस्त्रित इतिहास रहा है इसलिए आदि काल से वर्ण व्यवस्था जो कर्म आधारित थी उसके अनुसार समाज बहुत सुचारू रूप से चल रहा था लेकिन कैसे, कब और क्यों यह कर्म आधारित व्यस्था जन्म आधारित जाती व्यवस्था में बदल गई उसके कारणों की पड़ताल नही की गई। उसका दुष्प्रभाव यह रहा कि अपने ही समाज का एक तबक़ा हाशिये पर चला गया।छुआछूत जैसी मानसिक विकृति लोगों के मन मे घर करती रही औऱ हिन्दू समाज बटता गया।सामाजिक आंदोलन हुए,जागरूकता के प्रयास हुए लेकिन वो नाकाफ़ी रहे।
   
आरक्षण का संक्षिप्त इतिहास

समाज के शोषित तबक़े को न्याय देने के लिए कानूनी रूप से प्रयास किए जाने लगे। गवर्नर लार्ड रिपन के समय 1882 में हंटर आयोग गठित हुआ जिसने दलितों की शिक्षा के लिए पहली दफा  कुछ कानूनी प्रावधान किए। अंग्रेज द्वारा बाटो और राज करो नीति के माध्यम से मसलन मोर्ली मंटो रिफॉर्म(1909),मांटेग्यू क्लेमस्फोर्ड रिफॉर्म( 1919) के तहत कम्युनल एलेक्ट्रोरेट  सुझाए जाते रहे और आख़िरकार 1932 के कम्युनल अवार्ड के ज़रिए हिन्दू को बांटने के लिए दलितों के लिए अलग निर्वाचन देते हुए 80 सीटे आरक्षित कर दी गयीं।यह देश मे चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर कर देने की रणनिति थी ।गाँधी जी  इस चाल को बखूबी समझते हुए पुणे के यरवदा जेल मे आमरण अनशन शुरू कर दिया तब बी आर अम्बेडकर एक दलित प्रतिनिधि और मदनमोहन मालवीय जी के हस्ताक्षर से पूना पैक्ट हुआ।
पूना पैक्ट को उच्च वर्ग के हिंदुओं द्वारा एक सशक्त स्वीकृति थी कि दलित वर्गों  के साथ सबसे अधिक भेदभाव हुआ । यह भी माना गया था कि उन्हें राजनीतिक आवाज देने के लिए कुछ ठोस करना होगा और साथ ही साथ उन्हें पिछड़ेपन से उबारने के लिए ठोस कदम उठाने ही चाहिए।जॉइंट एलेक्ट्रोरेट बनाकर, 147 सीटे आरक्षित करके ,शिक्षा और नोकरी  में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए सभी रजामंद थे।
  
 6 दिसम्बर 1946 को जब सविंधान सभा गठित हुई।उसके ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी थी वंचित और शोषित वर्ग को मुख्य धारा में शामिल करने की। भारत  की आजादी के बाद, बी आर अम्बेडकर को 29 अगस्त 1947 के दिन ड्राफ्टिंग कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया।ऐतिहासिक पूना पैक्ट के वह दलित प्रतिनिधि ,बहुत बड़े कानूनविद भी थे ,उनके ऊपर जिम्मेदारी थी देश के आईन निर्माण के साथ अपने हितैषी वर्ग के कल्याण की।छुआछूत की विकृति से निजात दिलाने के लिए और सामाजिक न्याय देने के लिए आरक्षण उस वक्त की तात्कालिक उपाय था जिसे 10 वर्ष के लिए ही रखा गया था।
आज 70 वर्षो से भी अधिक हो चुका है लेकिन इसके प्रभाव, पड़ताल की जरूरत पर कोई भी संस्था,सरकार बात करने तक तैयार नही होती।

सविंधान में आरक्षण का क़ानूनी स्थान

यह स्पष्ट है दाखिले ,नोकरियों और प्रोमोशन में मिलना वाला  आरक्षण मूल अधिकार नही है।सुप्रीम कोर्ट सविंधान की व्याख्या करते हुए यह कह चुका है कि आर्टिकल 17 में छुआछूत का खात्मा जरूर एक मूल अधिकार है लेकिन आरक्षण उसे प्रभाव देना वाला मात्र एक अस्थायी समाधान है।ज़ाहिर था कि सविंधान निर्माताओं की सोच यह थी कि सदियों से अव्हेलना झेल रहे एक तबकों को कुछ समय के लिए रियायत देकर ,उसकी सामाजिक जीवन को सुधार कर उसे मुख्य धारा में शामिल किया जाए।डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी के शेड्यूल 5 और 6 में भी सरकार को इस दिशा में कई निर्देश दिए गए है।
आर्टिकल 334 में इन वर्गों के लिए लोकसभा और विधान सभाओं में 40 साल तक सीटो को आरक्षित करने का भी प्रावधान किया गया जिसकी मियाद जनवरी 2020 में खत्म हो रही थी जिसे मोदी सरकार ने बिना कोई समीक्षा के ,वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए उसे अगले 10 साल तक और बढ़ा दिया।दाख़िले और नोकरियों में आरक्षण के लिए आर्टिकल 16(4) में प्रावधान किए गए है।

आरक्षण का समाज में प्रभाव

सामजिक और शैक्षणिक तौर से पिछड़े तबके के उत्थान के लिए आरक्षण समाधान के रूप में कितना फायदेमंद रहा इसकी समीक्षा क्यो नही होनी चाहिए?आज के दौर का कथित सवर्ण अपने पूर्वजों द्वारा किये गए ऐतिहासिक अन्याय का खामियाजा ख़ुद क्यो भुगतें।आज का हर युवा सामाजिक समता का पक्षधर है। क्या पिछड़ेपन का टैग  अनंतकाल तक बने रहना चाहिये?आरक्षण एक टूल की तरह जरूर उभरा है लेकिन क्या केवल यही समाधान है। कथित वंचित समाज के भीतर कैपिसिटी बिल्डिंग का ध्येय क्या नही होना चाहिए?आज के समय में जब वेल्थ क्रिएशन ख़ुद संकट में है फिर उससे पहले ही वेल्थ डिस्ट्रीब्यूशन कैसे किया जा सकता है?

नव उदारवाद के इस युग में सामाजिक न्याय को अलग थलग रखकर देखने की एक चलन चल चुकी है।आरक्षण में स्थायित्व का नही मुक्ति का भाव होना चाहिए।एक अध्ययन में यह पता चलता है कि कक्षा 1 से 10 तक  का ड्रॉपआउट रेट 80 फीसदी है फिर जिन्हें हम उच्च शिक्षा में दाखिले  दे रहे है उनमे से कितने इसके जरूरतमंद है?यह एक बड़ा प्रश्न है  जो आरक्षण की समग्र समीक्षा के जरूरत की तरफ इशारा करती है।

 आर्थिक आधार की जटिलता और प्रसांगिकता

सविंधान के निर्माण के समय समाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन एक कड़वा सत्य था जिसे दूर करने के लिए प्रयाप्त समय भी अब तक दिया जा चुका है लेकिन एक सत्य यह भी है कि ग़रीबी और जाति का कोई संबंध नही है।ग़रीबी जाती देखकर नही आती है।आरक्षित वर्ग में भी कुछ तबके, परिवार,लोग ऐसे भी है जिन्हें इसका फ़ायदा लेने के लिए भी संसाधन नही है ,यही हाल अनारक्षित गरीबो के लिए है उनके लिए तो  संकट और विकट है।एक तरफ जहाँ ग़रीबी उन्हें रोज मार रही होती है दूसरी तरफ़ आरक्षण का जिन्न उन्हें सालता रहता है।।

1979 में जनता सरकार मोरारजी देसाई ने सविंधान में दिए आर्टिकल 340 में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करते हुए मंडल आयोग का गठन किया जिसको पिछेड़ेपन की एक नई परिधि पहचानने की जिम्मेदारी दी गई।1980 में अपनी रिपोर्ट में आयोग ने अनुसूचित जाति ,जनजाति के लिए चली आ रही है 22.5 की सीमा के अतिरिक्त पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की जिसे आनन फानन ,बिना विचारे वोट बैंक की राजनीति करने के लिए विश्व्नाथ प्रताप की सरकार ने 1990 में दाख़िले और सरकारी नोकरियों के लिए लागू कर दिया ।
1992 में मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा ,इंदिरा साहनी vs यूनियन ऑफ इंडिया का बहुचर्चित केस जहाँ पहली दफा क्रीमी लेयर जैसा कुछ सामने आया और पिछड़ी जातियों को तय करने के लिए पहली दफा आर्थिक मानदण्ड तय किए गए लेकिन यह अधिकार विधायिका को ही दिए गए जिसे हर 3 साल में समीक्षा करने का विधान किया गया।प्रोमोशन में आरक्षण पर भी इस केस ने रोक लगा दी।

कोर्ट का काम है क़ानून की समीक्षा करना ।सरकार ने  संसद में विधेयक लाकर अनुछेद 16(4) A और B संशोधित करके  प्रोन्नति में आरक्षण का मार्ग सुगम कर दिया।इन संसाधनों को चुनौती मिली  2006 के एम नागराज केस में जहाँ 3 मापदण्डों के परिधी को जोड़ दिया गया और SC ,S T में भी क्रीमी लेयर होना चाहिये इस बात की तस्दीक़ भी कर दी।फैसला देने वाली 5 जजो की बेंच थी जो इंदिरा साहनी केस के 9 बैंच जजो के निर्णय को पलटती दिख रही थी लेकिन क्या उन 9 जज के पीठ ने SC, ST में क्रीमी लेयर होने पर विचार किया था?उत्तर है नही मगर मेरी दृष्टि से सीनियर पदों पर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की दिशा में सरकार का वह कदम उचित था।अपनी वोट बैंक की राजनीति से कोई सरकार ऊपर नही उठ पाई और Sc, St वर्ग में क्रीमी लेयर का विधेयक नही ला पाई

जब सरकारों का वोट बैंक जाता दिखा तो वो पहुँच गए कोर्ट जरनैल सिंह के  फैसले में कोर्ट ने मामलों को 7 जज की पीठ को भेजने से इनकार किया अब सरकारे विधायिका के शक्ति 340 और कार्यपालिका की शक्ति 341 का रोना रो रही है ।

समस्या का मूल जड़

पीढ़ी दर पीढ़ी SC,ST वर्ग के लोग फ़ायदा लेते चले गए और उस वर्ग के जरूरतमंद परिवार जो कतार में आख़िरी में खड़ा है वो अभी भी जस का तस ही है। दलित गरीब और ग़रीब होता चला गया और आरक्षण का फ़ायदा लेते रहने वाला परिवार प्राप्त संसाधनों से तरक्की करता गया।यह सच है कि आरक्षण  वर्ग को दिया गया था लेकिन सच तो यह भी है कि व्यक्ति व्यक्ति से मिल कर ही वर्ग बनता है।सामाजिक परिपेक्ष्य में बदलाव की जरूरत है और यह बदलाव की बयार उस समाज से ख़ुद उठनी चाहिए क्योकि अगर कोई औऱ उनकी बात करेगा तो उन्हें यह लग सकता है कि उनके हक को मारने का प्रयास किया जा रहा है।उन्हें खुद आगे आकर इस बात का समर्थन करना चाहिए कि की SC ,ST में भी क्रीमी लेयर हो तभी आरक्षण का कुछ उद्देश्य सफ़ल होगा।

आर्थिक न्याय 

समाजिक न्याय का एक संबल आर्थिक न्याय के माध्यम से क्यो नही हो सकता।क्यो नही इन सभी विसंगतियों से ऊपर आकर ,अर्थिक असमानता को दूर करने के लिए सरकारी कदमों की एक अलग रूपरेखा विकसित करने पर बहस हो।
 आर्थिक सर्वेक्षण कराकर ग़रीब ,अति गरीब चिन्हित कर उन्हें मूल संसाधन मुहैया कराने पर जोर हो,उनकी स्थिति सुधारने के लिए यत्न हो।
उन्हें आरक्षण की बैसाखी पकड़ा देना और जीवन भर अपंग बने रहने के लिए प्रेरित करते रहने इसका हल तो नही,नए नए वर्ग इस अपंगता   पर आत्मसत्ता जमाने के लिए आंदोलन और मांग कर रहे है ।
103 वा सविंधान संसोधन विधेयक इस दफा में कुछ कारगर प्रयास जरूर था लेकिन यह नाकाफ़ी था।इस विधेयक के जद में बहुत जनसंख्या सम्मिलित हो जाती है,यह प्रश्न भी सहज खड़ा करती है कि आर्थिक आधार के मानदंड को लागू कैसे किया जाए क्योंकि फिर हम आरक्षण छोड़ भ्रष्टाचार पर बहस करने लग जाएंगे।

सुप्रीम कोर्ट का काम है कानून का समय अनुरूप व्याख्या करना।सुप्रीम कोर्ट अपना काम कर रही है लेकिन आरक्षण के अंध समर्थको ने सुप्रीम कोर्ट को भी नही बख्शा ,उसमे व्याप्त परिवारवाद को अपना ढाल बनाकर पेश करने की कोशिश की जो ख़ुद में देश के सामने दुर्भाग्यपूर्ण और विकट समस्या है।एक कड़वा सत्य यह भी है कि दलितों पर कुछ जगह अत्याचार रुकने के नाम नही ले रहे लेकिन अब यह प्रश्न पूछना जरूरी हो गया है कि  क्या  इसका समाधान आरक्षण है?

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